युधिष्ठिर का अनुत्तरित प्रश्न 


ydhishthir ka anuttarit prashna
yudhishthir 

"कह ? क्या क्या  साकार हुई ?
कहो जीत हुई या हार हुई ?"

"लगी सभासद  बैठे थे सब,
गुमसुम गुमसुम से थे वे जब,
पूछा था फिर युधिष्ठिर ने,
जो भी था, थे तो सब अपने ।।"

"कह ? क्या क्या साकार हुई?
कहो जीत हुई या हार हुई ?"

"साथ साथ ही खेले थे हम,
याद करो कैसे थे बचपन,
गुरू एक थे साथ पढ़ाई,
सखा सखा और थे हम भाई ।।"

"हँसी ठिठोली और हमजोली,
ललाट शोभते माँ की रोली,
दौड़ दौड़ हम साथ थके थे,
माँओं की वह प्यार रंगोली ।।"

"अब माँए भी लाचार हुई ,
कह ? जीत हुई या हार हुई ।।"

"धर्म राज थे जो कहलाते,
उत्तर नहीं अब खोज हैंं पाते,
चले कहाँ से , कहाँ तक पहुँचे,
कहाँ पहुँच गये आते आते ।।"

"कैसा राज ? कैसी राजधानी ?
मौत ने जिसकी लिखी कहानी,
राज दरबार शमशान बन गया ,
कैसे वहाँ  रहे कोई प्राणी ?"

"पसर गया था फिर सन्नाटा,
गाल पड़ा हो जैसे चांटा,
बोल न फूटे ,आँख भी नीचे,
सन्नाटा ही था सन्नाटा ।।"

सभा भी बन गई ना सभा सी,
बोल ना पाए कोई जरा सी,
हृदय दग्ध था , मन रूआंसा,
प्यास मिटा पर रह गये  प्यासा ।।"

"युधिष्ठिर पूछते प्रश्न ही खुद से,
क्या खोया क्या पाया जिद से,
मानवता संहार हुई,
कहो जीत हुई या हार हुई।।"

"लोभ ,मोह और धन दौलत,
या फिर सत्ता का गलियारा,
राज सिंहासन बैठ के डोलो,
रह जाएगा मन अंधियारा ।।"

"कहाँ सोचते हम सब लेकिन,
लोभ ग्रसित फिर भी होते हैं,
बात बात पर मचता दंगल,
मोह माया में जा बसते हैं।।"

"ठहर जाओ अब ठहर भी जाओ,
ऐसा कह जब रोक लिया था,
अंगुलिमाल तब हतप्रभ होकर,
बुद्ध चरण गिर अमृत पिया था ।।"

,
रोक सको तो रोको खुद को ,
चाहिए हमें भी अब रूक जाना
ब्यर्थ है वो सब मारा मारी,
एक दिन तो है उपर जाना ।।"

"जीत हार का भेद मिटा ,
जब प्रेम ,स्नेह को अपनाओगे,
जीवन का यह भेद तभी,
खुद को खुद में ही पाओगे ।।"

"हुलस के कहना फिर ये की
जीवन जीना साकार हुई,
जीत तभी तेरी जीत हुई ,
नहीं तो बस तेरी हार हुई ।।



 युधिष्ठिर का रहा  प्रश्न अनुत्तरित,

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